गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर एक दूरदर्शी नेता थे। जानिये क्यों।
एक नाटककार, कवि, और चित्रकार, रविंद्रनाथ टैगोर आज तक एक घरेलू नाम हैं।उनका जन्म बुद्धिजीवियों के परिवार में हुआ था। उनके पिता, महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर, एक दार्शनिक और ब्रह्म समाज आंदोलन के एक प्रसिद्ध चेहरे थे। एक अलग युग में पैदा होने के बावजूद, टैगोर और उनके खयालात, समय से परे हैं और अभी भी प्रासंगिक हैं। उनके काम में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विरोध, और मानवता और पर्यावरण के लिए प्रेम साफ नजर आता है। आज भी दुनिया को उनके सिद्धांतों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी की पहले थी।
टैगोर को आश्चर्यजनक रूप से कम उम्र से ही लेखन का शौक था। महज आठ साल की उम्र में उन्होंने कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। भविष्य में यह शौकिया क़लम क्या पैदा करेगा, इसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता। टैगोर ने संस्कृत-उन्मुख साहित्य की परंपरा को तोड़ा और इसके बजाय अपने गद्य में देशी, अनौपचारिक भाषा का इस्तमाल किया।। यही एक कारण है कि उन्होंने बंगाली समाज में लोकप्रियता हासिल की।
उनकी कविताओं का एक संग्रह, मानसी 1890 में प्रकाशित हुआ। यह पहली बार था जब उन्होंने विभिन्न लय का प्रयोग किया था। यह एक कम ज्ञात तथ्य है कि उनकी अधिकांश रचनाएँ कविताओं के बजाय गीतों से बनी थीं। पश्चिम देशो को उनके हुनर के बारे में उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना, गीतांजलि, से मालूम हुआ। 1910 में प्रकाशित, गीतांजलि ने उन्हें 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी दिलाया। रविंद्रनाथ टैगोर ने पहला गैर-यूरोपीय नोबेल पुरस्कार विजेता बान कर इतिहास की रचना की।
शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि टैगोर वास्तव में पश्चिम के प्रशंसक नहीं थे। अपने प्रारंभिक वर्षों में भी, उन्होंने होमस्कूलिंग के माध्यम से अपनी औपचारिक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्राप्त किया। उच्च अध्ययन करने के लिए, वह इंग्लैंड चले गए, लेकिन जल्द ही लौट आए। टैगोर अध्यापन के पारंपरिक तरीकों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने खुले तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आवाज उठाई।
पश्चिमी शिक्षण पद्धतियों में उनका विश्वास कम था। उनकी राय में, पश्चिमी शिक्षा प्रणाली ने ज्ञान को केवल कुछ पुस्तकों तक सीमित कर दिया। उनका मानना था कि प्रकृति ने व्यक्ति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्राकृतिक वातावरण के साथ अभियान, भ्रमण और बातचीत रचनात्मकता को बढ़ावा देते हैं। टैगोर ने प्रकृति के महत्व को पहले ही स्थापित कर दिया था, जिसकी 21वीं सदी में भी बहुत आवश्यकता है।
वे पर्यावरणविद होने के साथ-साथ मानवतावादी भी थे। वह एक शिक्षक और एक छात्र के बीच एक स्वस्थ संबंध बनाने में विश्वास रखते थे। टैगोर ने पेशेवर नैतिकता को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित किया। उन्होंने कहा कि एक शिक्षक को दुर्जेय अधिकार का पद ग्रहण करने के लिए नहीं बनाया गया था। इसके बजाय, एक शिक्षक को एक आदर्श नागरिक का उदाहरण पेश करना चाहिए जो देखने लायक हो। उन्होंने सांस्कृतिक अध्ययन और मूल भाषा पर जोर दिया। उनके लिए, शिक्षा में न केवल बौद्धिक बल्कि आर्थिक और आध्यात्मिक विकास भी शामिल था। शांतिनिकेतन, टैगोर द्वारा स्थापित संस्थान, इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है। शिक्षा के क्षेत्र में उनके प्रयासों के लिए, लोग उन्हें प्यार से गुरुदेव कहते थे, जिसका अर्थ शिक्षक, गुरु या आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है।
साहित्यिक प्रतिभा
रविंद्रनाथ टैगोर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। टैगोर द्वारा प्रदर्शित भावनात्मक संवेदनशीलता अद्वितीय है। उनकी रचनाएँ यह स्पष्ट रूप से ज़ाहिर करती हैं कि उनके पास मानवीय भावनाओं को किसी और से बेहतर तरीके से पकड़ने की क्षमता है। उनकी लघु कथाएँ अकथनीय भावनाओं की बात करती हैं। ऐसी ही एक कहानी है काबुलीवाला। यह एक अफगान विक्रेता की भावनात्मक यात्रा है, जिसमें एक बच्ची, मिनी, एक परिपक्व महिला के रूप में विकसित होती है।
रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाओं ने 20वीं शताब्दी में महिलाओं की स्थिति का सटीक चित्रण किया। उनके सबसे समीक्षकों द्वारा प्रशंसित उपन्यासों में, चोखेर बाली है जिस में महिला नायक, बिनोदिनी, एक विधवा है जिसे विभिन्न विधवा आश्रमों (विधवाओं के लिए शरण) से निकाल दिया गया है क्योंकि वह शिक्षित और निडर है। ये कहानी रिश्तों, बेवफाई, युवा वयस्कों और उनकी आवेगशीलता से संबंधित है।
टैगोर ने चतुराई से लिखे गए नाटकों की एक श्रृंखला भी प्रस्तुत की। वह लापरवाही से बंगाली कमर्शियल थिएटर का मजाक उड़ाते थे। उनकी राय में वे बहुत अतिरंजित और सुशोभित थे। उनके नाटक ऐसे लिखे गए कि वे रस (भारतीय साहित्य में साहित्यिक उपकरण) पर अधिक निर्भर थे। उनके प्रसिद्ध नाटकों में वाल्मीकि-प्रतिभा और प्रकृति प्रतिशोध शामिल हैं। यह सामान्य ज्ञान है कि उन्होंने बांग्लादेश और भारत के राष्ट्रगान की रचना की। जन गण मन में काली जैसी देवी का आह्वान करने वाले छंद शामिल थे, जिन्हें बाद में संशोधित किया गया था।
हर साल, उनके जन्मदिन को बैसाख (बंगाली महीने) के 25 वें दिन, रविंद्र जयंती के रूप में मनाया जाता है। व्यावहारिक रूप से भारत में आयोजित होने वाले प्रत्येक सांस्कृतिक उत्सव में टैगोर की विरासत आज भी जीवित है।